अस्तित्व-विहीन
अभी सुबह के 11 ही बजे हैं और मैंने अपनी तीसरी सिगरेट जला ली है। 2 कि स्पीड पर पंखा चल रहा है, मैं बेड पर लेटी हुई हूँ और देख रही हूँ कि कैसे हर कश के साथ निकले धुएँ का ग़ुबार ऊपर जा रहा है और पंखे कि हवा से छितराकर ग़ायब हो जा रहा है। ऐसा लगता है कि मेरी ज़िंदगी भी इस धुएँ कि तरह आहिस्ता-आहिस्ता ग़ायब हो रही है हर कश के साथ। मास्टर्स में अकेलेपन और डिप्रेशन के दौरान सिगरेट कि आदत लगी थी और आज पूरे 3 साल हो गए हैं फूँकते हुए। पता ही नहीं चला कि कब एक सिगरेट दिन के दस सिगरेट में बदल गयी।
अचानक डोर-बेल बजी, वो आ गया होगा।
" पूरा रूम धुआँ-धुआँ हो रखा है, क्या कर रही हो सुबह-सुबह ?" - उसने परदे हटाते हुए कहा
" अँधेरा रहने दो मुझे वही पसंद है "
" अभी सुबह से कितनी सिगरेट फूँक चुकी हो ?"
" तीन "
" और ये खाली पैकेट जो पड़ी है फ़र्श पर वो रात में ख़त्म कि होगी तुमने "
मैंने कुछ नहीं कहा।
" सिगरेट का पैकेट दो इधर "
उसने पैकेट उठाया और डस्टबिन में सब सिगरेट तोड़ कर गिरा दी।
" ये क्या किया तुमने ?" मैंने गुस्से में एक क़िताब फेंक कर मारी जो उसके नाक पर जा कर लगी और खून निकलने लगा।
उसने उफ़ तक नहीं कि और चुपचाप वो क़िताब उठा कर रख दी। मैं कुछ न कह पायी बस दौड़ कर गयी और उसके गले से लगकर फूट-फूट कर रोने लगी। उसने मुझे कस के अपनी बाहों में भर लिया। पता नहीं कितनी देर तक मैं उसके सीने पर सर रख कर रोती रही कि उसकी शर्ट का वो पूरा हिस्सा गीला हो गया।
" कोई मुझे नहीं समझता, मेरे अकेलेपन को, तुम भी नहीं। तुम्हारे पास तुम्हारे कुछ दोस्त हैं जिनके तुम बहुत क़रीब हो, तुम तो उनके साथ निकल जाते हो कभी-न-कभी पर मैं तो फ़ेक (दिखावटी) लोगों से घिरी रहती हूँ। दम घुटता है मेरा उनके बीच, न तो कोई भाई-बहन है शेयर करने को और माँ-बाप से तो बस फॉर्मेलिटी होती है अब। तुम पर डिपेंड हो गयी हूँ मैं पूरी, तुम्हारे बिना इमोशनली कमज़ोर सा फ़ील होता है और मुझे गुस्सा आता है कि तुम्हें मेरी ज़रूरत कम है और मुझे तुम्हारी ज्यादा। "
मैंने उसके चेहरे से आँसू पोछे।
" ये लो पानी पियो "
" कुछ बोलोगे नहीं "
" कुछ दिखाना है तुम्हें "
" दिखाओ "
" यहाँ नहीं कहीं चलना होगा "
" मेरा मन नहीं कहीं जाने का "
" तुम्हारे सारे सवाल के ज़वाब मिल जायेंगे वहाँ "
" मैं अच्छी नहीं लग रही ऐसे, कैसे जाऊँ "
" तुम मुझे हमेशा अच्छी लगती हो चाहे कैसी भी रहो " - मैंने उसके माथे को चूमते हुए कहा
" अब जाओ जल्दी से तैयार हो जाओ और 2-3 दिन के कपड़े भी पैक कर लो "
" सरप्राइज ट्रिप !! "
" हाँ सरप्राइज तो मिलेगा तुम्हें "
" हम कहाँ जा रहे हैं "
" सफ़र का मज़ा लो, मंज़िल ख़ुदबख़ुद पता चल जायेगी "
हम रेलवे स्टेशन आ गए। अभी हमारी ट्रेन आने में 15 मिनट हैं और वो बच्चों के जैसे ख़ुश है। 25 कि हो गयी है पर पूरी बच्ची है वो अभी तक। थोड़े देर पहले आँखें सूजा रखीं थी रो-रो कर और अभी अपनी ट्राली बैग पर बैठ कर ठंडी में बटरस्कॉच कि कोन खा रही है। ट्रेन आयी और हम उसमें बैठ गए। हमारी सेकंड एसी में साइड अपर और लोअर सीट्स हैं। 15 घंटे का सफ़र हमने एक सीट पर ही बिताया। परदे लगाकर वो पूरे रस्ते मेरी बाहों में ही लेटी रही और मैं उसे कॉलेज के किस्से सुनाता रहा।
" अगर एक ही सीट पर सोना था तो मैं दो टिकट नहीं लेता " - मैंने हँसते हुए कहा
" ट्रेन वाले तकिये से बेटर तुम्हारी गोद है " - और मेरा हाथ पकड़ कर वो वैसे ही सो गयी। मैंने कंबल से उसे ढँक दिया और फ़िर किसी सोच में डूब गया। मुझे कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला। सुबह को जब नींद खुली तो बस एक स्टेशन दूर थे हम अपनी मंज़िल से। मैंने उसे उठाया फिर थोड़ी देर में हम अपने स्टेशन पर उतरे। मेरे चेहरे पे एक ख़ुशी सी आ गयी जो तब आती है जब आप अपनी जानी-पहचानी मिट्टी पर लौट कर आते हो।
" दिल्ली से चलकर कानपुर, इलाहबाद और मुग़लसराय होते हुए पटना को जाने वाली ट्रेन प्लैटफॉर्म संख्या 1 पर आ चुकी है "
पूरा स्टेशन साफ़ सुथरा है और नयी-नयी रंगाई-पुताई भी हुई है। पटरियों पर ब्लीचिंग पाउडर पड़ा हुआ है। जग़ह-जग़ह पर पीले और हरे कूड़ेदान लगे हुए हैं। नीली साड़ी में एक बूढ़ी अम्मा बड़ी वाली झाड़ू से सफ़ाई कर रही हैं। सामने सुधा डेरी कि दुकान है और थोड़े बगल में मिट्टी के कुल्हड़ में चाय मिल रही है। व्हीलर्स वाले स्टॉल पर न्यूज़ पेपर, मैगजीन्स, कॉमिक्स और उपन्यास सलीक़े से सजाये हुए हैं। बीच-बीच में बड़ी स्क्रीन्स भी टंगी हुई हैं जिनपे यात्रियों कि सुविधा के लिए जानकारी दिखाई जाती है।
" समय के साथ कितना कुछ बदल गया है यहाँ " - स्टेशन से निकलते हुए मैंने सोचा
" हम बिहार में हैं क्या ?"
" हाँ "
" मैं पहली बार आ रही हूँ बिहार में "
" पता है मुझे " - मैंने मुस्कुराते हुए कहा
स्टेशन के पास ही एक बड़ा होटल था वहाँ मैंने पहले ही बुकिंग कर रखी थी और फ़ोन पे पहले ही बता दिया था कि हम अनमैरिड कपल हैं। रिसेप्शन पे 20-21 साल कि लड़की है उसने बिल्कुल नॉर्मली रिएक्ट किया रूम देते वक्त। अज़ीब है न कुछ साल पहले यहाँ अनमैरिड कपल रूम लेने का सोच भी नहीं सकता था पर वक़्त के साथ धीरे-धीरे ही सही, चीज़ें बदलती ज़रूर हैं।
" ज़ल्दी से नहा कर रेडी हो जाओ "
" हम कहाँ जायँगे ?"
" पता चल जायेगा कुछ देर में "
कुछ देर बाद हम तैयार होकर नीचे उतरे।
" चलिएगा चचा " - मैंने पता बताते हुए क़रीब 50-55 साल कि उम्र वाले चचा से पूछा, जो सड़क के उस पार धूप में रिक्शा लेकर खड़े थे।
" आईये सर, बैठिए "
जब भी कोई मुझसे उम्र में बहुत बड़ा इंसान मुझे सर कहके बुलाता है तो मुझे बड़ी शर्म महसूस होती है क्योंकि उसका कारण सिर्फ एक है कि वो ग़रीब हैं और मेहनत-मज़दूरी करते हैं, और हमारा समाज मेहनत-मज़दूरी करने वालों को छोटा समझता है।
वो पहली बार इस तरह के रिक्शे पे बैठी है और अलग ही चहक रही है।
" कितना साल से रिक्शा चला रहे हैं, आप ?"
" 20 साल हो गया, सर "
" और आपका बाल-बच्चा लोग क्या करता है ?"
" एक तो लड़का है ऊ रेलवे में खलासी पे लग गया है और बेटी का शादी कर दिए ई साल "
" इतना उमर में भी काहे चलाते हैं आप, चचा ?"
" मजूरी करे वाला शरीर है बाबू, बैठेंगे तो घुन लग जायेगा न "
क़रीब 2 किमी चलकर हम एक आधी पुरानी-और आधी नयी से दिखने वाली जग़ह के सामने उतरे।
"कितना हुआ, चचा ?"
" जो दे दीजिये "
" आप बोलिये न "
" 20 रुपया दे दीजिये सर "
वो छोटी जग़ह वाली ईमानदारी से उन्होंने कहा, कहीं और इतनी दूरी के 60-70 रूपए लगते हैं।
" लीजिये चचा " - मैंने 100 का नोट बढ़ाते हुए कहा
" छुट्टा नहीं है सर, आप ही बोहनी किये हैं "
" आप पूरा रख लीजिये "
" नहीं सर, हम नहीं ले सकते "
" रखिये न चचा, हम अपनी दुल्हन के साथ पहली बार आये हैं यहाँ इसलिए प्यार से भेंट कर रहे हैं आपको काहे कि पहला सैर आप कराये हैं " - मैंने हँसते हुए उनके हाथ पर हाथ रखते हुए कहा और दुल्हन सुनके वो हँसने लगी।
चचा ने मेरे सर पर हाथ रख के आशीर्वाद दिया और ख़ुशी-ख़ुशी वापस रिक्शा घुमा लिए।
जिनके पास कम होता है न वो दिल से बड़े अमीर होते हैं और आप उन्हें थोड़ा सा प्यार और सम्मान दीजिये तो वो आपको उसका दोगुना लौटाएंगे।
सामने गेट पे लिखा हुआ है " मदर टेरेसा अनाथ सेवा आश्रम "। अंदर कुछ बच्चे पिट्टो खेल रहे हैं। बच्चों कि नज़र हम पर पड़ी और "भैया आ गए " चिल्लाते हुए दौड़ कर हमारी तरफ आये और आकर उसके गले से लग गए। एक उसकी पीठ पर, एक उसकी गोद में और बाकी हाथ पकड़ कर। दीदी-दीदी बोलकर एक-दो ने मेरा भी हाथ पकड़ लिया। मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी क्या हो रहा है। उसने मुझे अपनी जैकेट, मोबाइल और पर्स पकड़ाया और बच्चों के साथ खेलने लगा। मैं धूप में खड़ी हो गयी और देखने लगी।
" आप उनके साथ हो " - पीछे से एक लेडी कि आवाज़ आयी
" ज़ी सिस्टर !! आप जानती हैं उसे ?"
" पिछले 2 साल से "
मैं बिलकुल हैरान थी कि इतने समय में उसने कभी मुझे इसके बारे में कुछ नहीं बताया था।
" लगता है आपको उसने नहीं बताया होगा " - शायद सिस्टर ने मेरे चेहरे पे हैरानी के भाव पढ़ लिए होंगे
मैंने हाँ में सर हिलाया।
" आईये बैठिये मैं बताती हूँ आपको, चाय पियेंगी आप ?" - उन्होंने दो कुर्सीयाँ मंगाई और हम धूप में बैठ गए।
" दो साल पहले ये यहाँ आया था कुछ जानकारी लेने फिर बच्चों से मिला और यहाँ कि ख़राब हालत देखी और बिना कुछ बोले चला गया। फिर कुछ दिनों बाद वापस आया और हमारे लिए 10000 का चेक दे कर गया और सब बच्चों को नए कपड़े दिलवाये। तब से ये हर महीने आता है यहां और बच्चों के लिए चॉकलेट, कपड़े, क़िताब-कॉपी और खेलने का सामान दे जाता है। मैंने कई बार कहा कि इसके बदले कमसकम दीवार पर टंगी डोनर लिस्ट में आपका नाम तो लिखवाने दीजिये ताकि लोगों को पता तो चले आपके बारे में, तो साफ़ मना कर देता है। अब रही बात कि वो यहाँ क्यों आता है तो इसका ज़वाब अगर आप उससे ही पूछेंगी तो बेहतर होगा "
थोड़ी देर में वो खेलने के बाद आकर बैठा मेरे पास। सिस्टर को प्रणाम किया और थोड़ी बात-चीत की फ़िर सिस्टर ने हमें बात करने को अकेले छोड़ दिया।
" जानता हूँ तुम्हारे मन में बहुत सवाल होंगे "
" हाँ, बहुत सारे हैं "
" दो साल पहले कॉलेज से ग्रेजुएट होने के बाद मैं घर पर था नौकरी ज्वाइन करने से पहले। एक दिन अपने पुराने स्कूल के सर्टिफिकेट्स वगैरह देख रहा था जो मेरी मम्मी ने बड़े ध्यान से संभाल कर रखे हैं। उनको देखते हुए बचपन कि यादें ताज़ा कर रहा था की उनके बीच से एक पुराना पीला सा कागज़ गिरा और उस दिन उस कागज़ के टुकड़े ने मेरी दुनिया हिला कर रख दी। वो 23 साल पुराना कागज़ था जिसपे यहाँ का पता और मेरे मम्मी-पापा का नाम लिखा था कि वो एक 3 साल के बच्चे को गोद ले रहे हैं।
मैंने किसी को कुछ नहीं बताया और घूमने के बहाने यहाँ आ गया।
रिकार्ड्स के हिसाब से कुछ महीने की उम्र में मुझे कोई इस अनाथालय के गेट पर छोड़ गया था। तीन साल तक मैं यहाँ पला बढ़ा और फिर एक दिन मेरे माँ-पापा आये और मुझे एक नयी जिंदगी दे गए। न उन्होंने मुझे कभी बताया या इस बात का एहसास होने दिया कि मैं उनका अपना खून नहीं हूँ। उनको भी इस बात का पता नहीं है कि मुझे ये सच अब पता है।
तुम्हें लगता है कि मैं ट्रिप्स पर जाता हूँ दोस्तों के साथ पर असल में छुट्टी लेकर मैं यहाँ आता हूँ ट्रिप्स के बहाने। उस दिन तुम रो रही थी न कि मैं तुम्हें नहीं समझता और तुम अकेली हो। अब तुम सोचो कि 24 साल कि उम्र में एक दिन तुम्हें अचानक पता चले जो तुम्हारी पहचान को ही झुटला दे तो कैसा महसूस होगा तुम्हें। मैं एक लावारिस था जिसे मेरे माँ-पापा ने अपना नाम दिया पर मैं कौन हूँ, मुझे जन्म देने वाले माँ-बाप कौन थे, वो मुझे क्यों छोड़ कर गए ? क्या मैं किसी के शोषण और धोखे का नतीज़ा हूँ या फिर किसी के शर्म की वज़ह ?
दिल में तूफ़ान खड़ा करने वाले ऐसे कई सवालों के बवंडर में फंस गया था मैं।
ज़िंदगी ने एक अज़ीब से मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था मुझे, जहाँ एक तरफ़ मेरा अस्तित्व भी है और एक तरफ़ मैं अस्तित्व-विहीन भी हूँ। सोचता हूँ मेरे भाई-बहन भी होंगे और शायद मैं जिंदगी में कभी उनके आस-पास से गुजरूँगा पर फिर भी उन्हें पहचान नहीं पाऊंगा। इन सवालों के ज़वाब के लिए मैं पिछले दो सालों से पागलों की तरह भटक रहा हूँ। कभी-कभी लगता है सर दर्द से फट जायेगा। पूरे कॉलेज में कभी शराब नहीं पी पर ये सब जानने के बाद एक महीने तक शराब में डूबा रहा। कुछ भी समझ में आना बंद हो गया था मुझे। फिर एक दिन सोचा कि मैं ये क्या कर रहा हूँ ? बजाये ये सोचने के कि मैं कितना ख़ुशक़िस्मत हूँ कि वैसे हालातों से निकल कर आज इतनी अच्छी जग़ह हूँ, मैं शराब में डूबा हूँ। जानती हो मैंने अब इन सवालों के साथ समझौता कर लिया है वरना मैं कभी शांति से ज़ी नहीं पाऊंगा। हाँ ये ज़रूर है कि इन अनसुलझे सवालों की टीस रह-रह कर मेरे ज़ेहन में उठते रहेगी पर मुझे उसके साथ जीने की आदत डालनी ही होगी।
यहाँ को लेकर मेरी यादाश्त तो धुँधली सी है पर जब भी यहाँ आता हूँ तो आज भी लगता है कि यहाँ से कुछ पुराना रिश्ता सा है। ये जो बच्चे हैं न, ये भी मेरी तरह यतीम हैं और अगर मैं इनके लिए कुछ करता हूँ तो वो कोई एहसान नहीं है बल्कि एक लावारिस का दूसरे लावारिस के लिए फ़र्ज़ है। मैं नास्तिक हूँ पर मेरे लिए मेरे माँ-बाप इंसानों से कहीं ऊपर हैं। जो उन्होंने मेरे लिए किया वो मैं इनके लिए करूँगा क्योंकि जिसने तकलीफ़ और दर्द झेला हो उसे ही दूसरों का दर्द दिखाई पड़ेगा और वही उसे समझ कर उन घावों पर मलहम भी लगायेगा। बाकी दुनिया को कोई फ़र्क नहीं पड़ता यही उसूल है इस समाज का।
और तुम जो हमेशा बोलती हो कि क्यों मुझे गुस्सा आता है ग़लत बातों पर, और लोग भी तो हैं दुनिया में उनकी तरह रहना सीखो। शोषण एक इंसान से क्या छीन लेता है वो मैं अच्छे से जानता हूँ और ये तुम शायद नहीं समझोगी। इसलिए मुझे ज़ुल्म करने वाले और उसको सपोर्ट करने वाले हर इंसान से सख़्त नफ़रत है, जिसे मैं चुप रहके नहीं बर्दाश्त कर सकता। "
मेरी आँखों से आँसू बहे जा रहे हैं और गला ऊपर तक भर चुका है पर क्या बोलूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा है, जबकि वो एक दम शांत है, उसकी आँखें दूर कहीं शून्य में खोयी हुई हैं पर कोई आँसू नहीं है। अगर किसी और से ऐसा कुछ सुनती तो शायद मैं इसे मनगढंत कहानी मानती पर अपनी आँखों से देखने के बाद मैंने आज जाना कि सच वाकई में कल्पना से भी अज़ीब होता है।
इंसानों के चेहरे पर भी कितने नक़ाब होते हैं। इतने लम्बे समय से इसके साथ रही पर एक पल को भी अंदाज़ा नहीं हुआ कि इस हँसते-खेलते चेहरे के पीछे कोई इतना दर्द छुपा कर रह सकता है। इस एहसास ने मुझे कई तरीकों से झिंझोड़ कर रख दिया और समाज के बारे में जो मेरी समझ थी उसे चकनाचूर करके ये एहसास दिलाया कि वाक़ई में मेरे जैसे लोग कितने प्रिविलेज्ड हैं, किसी भी तरह के शोषण से बचे हुए कितनी आसानी से हम दूसरों की बड़ी तकलीफ़ों को नज़रअंदाज़ कर अपनी मामूली से परेशानियों के सामने हार मान बैठते हैं। आज उसने मुझे एक नए तौर से जीना सीखा दिया और शायद अब मेरे दिल में उसके लिए प्यार से कहीं ज़्यादा इज़्जत है।
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