छोटे शहर वाला इश्क़ #1
" तुम हमेशा मुझसे आगे-आगे क्यों चलते हो ? मेरा हाथ पकड़ के साथ नहीं चल सकते क्या ?"
" सॉरी, मुझे तेज़ चलने कि आदत है न और तुम जानती हो न कि मुझे थोड़ी झिझक होती है "
" अच्छा !! बातें तो बड़ी-बड़ी करते हो और यहाँ मुझसे ही शरमा जाते हो "- उसने हँसते हुए कहा और फिर मेरी बाहों में अपनी बाहें डाल दी
" बातें तो मैं बहुत कर लेता हूँ पर क्या करूँ, रहूंगा तो हमेशा छोटे से शहर वाला लड़का "- मैंने भी हँसते हुए कहा
" अच्छा, चलो न वहाँ जहाँ के समोसे खाने रोज़ जाते हो तुम "
" पागल हो क्या ? वहाँ नहीं ले जा रहा मैं तुम्हें "
" क्यों ?"
" वो जग़ह तुम्हारे लिए नहीं है "
" क्यों लड़कियाँ वहाँ नहीं जा सकती क्या ?"- उसने हँसते हुए कहा
" तुम समझती ही नहीं हो "
पर उसके बच्चे जैसी ज़िद के सामने मैं कभी जीत नहीं पाया था तो आज क्यों अलग होता।
हमने ऑटो पकड़ा और बड़े शहर के उस हिस्से में आ गए जो छोटे से शहर जैसा है। थोड़ा चलने के बाद एक गली में घुसे जो एक चौड़ी सड़क पर खुलती है। सामने एक प्राथमिक सरकारी स्कूल है। लंच टाइम हुआ था उनका और ढ़ेर-सारे छोटे-छोटे बच्चे मैदानों में बिखरे हुए थे। हँसते-खिलखिलाते, खाते-खेलते हुए अपनी दुनिया में मशगूल हैं वो सब। उस स्कूल से सटी हुई वो समोसे कि दुकान है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं समोसे कि खुशबू आने लगी। दुकान के बाहर ही कोयले वाले चूल्हे पर चढ़ी हुई बड़ी सी काले रंग कि कड़ाही रखी हुई है। धीमी आँच पर तेल में तैरते हुए समोसे, मैदे के सफ़ेद रंग से सुनहले में तब्दील हो रहे हैं और उनकी खुशबू मेरे मुँह में पानी ला रही है। उसके लिए ये सब कुछ नया सा है और वो छोटे बच्चे कि तरह ख़ुश हो रही है, जैसे कभी मैं होता था मेरे बचपन के उस छोटी सी जगह के मेले में।
मुझे अंदर से थोड़ी घबराहट सी हो रही है क्योंकि यहाँ हमेशा लड़के या अंकल लोगों की भीड़ रहती है। जैसे ही हम दोनों दुकान के सामने पहुँचे, सारी नज़रें हमारी तरफ़ मुड़ गयीं। खैर ये तो होना ही था। हलकी ठंड़ की उस गुनगुनी धूप में, सफ़ेद कुर्ती और ग़ुलाबी दुप्पटे में अपने खुले रेशमी बालों के साथ उसकी सादग़ी और खूबसूरती ने हर किसी का ध्यान खींच लिया। अख़बार में घुसी आँखें भी बाहर झाँकने लगी थीं, गर्दनें मुड़ी, कुछ का मुँह खुला रह गया और ये सब देख कर मुझे बड़ा अज़ीब सा लगने लगा। हालाँकि लोगों ने तुरंत अपने आप को संभाला और पहले जैसे हो गए। समोसे वाले अंकल ने मुझे मुस्कुराते हुए नमस्कार किया और आज मैं झिझक से जवाब तक न दे पाया। मैं अपने आप को कोसने लगा था कि मैं उसे यहाँ लेकर क्यों आया ?
पर वो तो इन सबसे अंजान अपनी काजल वाली बड़ी-बड़ी आँखों से अभी तक कड़ाही में छनती हुई जलेबी और तलते हुए समोसों को देख रही थी। जलेबी को बनते हुए देखकर कोई इतना ख़ुश भी हो सकता है ये आज जाना मैंने। ख़ैर वो थी ही ऐसी।
" अंकल मैं भी बना कर देखूँ एक बार "
अंकल ने मेरी तरफ़ देखा - "अरे बेटा आप बैठ के खाइए न, ये मुझे ही करने दीजिये "
" हाथ जल जाएगा तुम्हारा "- मैंने फ़िक्रमंद हो कर कहा
" बस एक बार, कितना अमेज़िंग है ये "
" अच्छा अंकल, दे दीजिये इसको पर देखिएगा तेल के छींटे न पड़ें "
" लीजिये बेटा, ऐसे गोल-गोल ये थैली घुमाइए और जलेबी बनती जाएगी "
उसने अपने बालों को कान पर किया और लग गयी ज़लेबी बनाने। उसकी इसी सादगी और मासूमियत पर तो फ़िदा हुआ था मैं।
हमें देखकर अंकल और लड़के लोगों ने एक पूरी टेबल और आस-पास की कुर्सियां ख़ाली कर दीं। शायद वो मेरी झिझक समझ गए थे।
" शायद बड़ी सोच के लिए आपको हमेशा बड़े शहर से होना ज़रूरी नहीं होता "
मैंने दो कुर्सियां उठाई और दुकान के बाहर ही हम दोनों बैठ गए धूप सेंकने। हालाँकि हमसे पहले लोग इंतज़ार कर रहे थे पर सबसे पहले गरमा-गरम समोसे, पुदीने और इमली की चटनी अंकल हमारे लिए लाये।
" आप कभी ख़ूबसूरत लड़की के साथ कहीं जाओ तो अलग ही खातिरदारी करते हैं लोग " - ये सोचते हुए मेरे चेहरे पे एक मुस्कान सी आ गयी
मेरे दिमाग में इतना कुछ चल रहा है और दुनिया से अनजान वो अपनी उँगलियाँ हरी और लाल चटनी में डुबा कर उनका स्वाद ले रही है।
" पहले क्यों नहीं लाये मुझे तुम यहाँ "
" तुम्हें CCD में 200 रुपये वाली कॉफ़ी की आदत है और मुझे यहाँ की दस रुपये की चाय में स्वाद मिलता है। मुझे लगा तुम्हें ये जग़ह कैसे पसंद आएगी ?"
" तुम न ज़्यादा सोचते हो !! अब मुझे किसी ने कभी ये सब दिखाया ही नहीं तो कैसे पता चलेगा मुझे ? "
" अच्छा छोड़ो, ये बताओ कैसा लगा तुम्हें ?"
" समोसे तो बहुत टेस्टी हैं और बहुत मज़ा आया जलेबी बना कर "
मैं सोच रहा था कि उसे दिक्कत होगी इस जग़ह से पर उसके मासूम मन में इन सब बातों के लिए जग़ह ही नहीं थी। बड़े शहर की चमक-दमक और दिखावे की दुनिया से बिलकुल अनजान सी है वो।
तभी दो छोटे बच्चों पर हमारी नज़र पड़ी जो थोड़ी दूर से जलेबी और समोसे की कड़ाही को ललचाई नज़रों से देख रहे थे। इससे पहले मैं कुछ करता -
" इधर आओ "- उसने दोनों बच्चों को इशारे से बुलाया
वो दोनों झिझकते हुए पास आये हमारे।
" आप दोनों समोसे-जलेबी खाओगे ?"
उन्होंने सर नीचे करके ना में सर हिलाया।
" अच्छा कौन सी क्लास में हो आप दोनों ? "
आगे के दांतों में बनी खिड़की वाली अपनी मुस्कराहट में एक ने कहा " 2 क्लास में, दीदी "
"अच्छा " - उसने उनके बालों को सहलाते हुए कहा
" आप दोनों को समोसे पसंद हैं ?"
इस बार दोनों ने हल्का सा मुस्कुराते हुए हाँ में सर हिलाया।
" अंकल, दो प्लेट इन दोनों के लिए भी कर दीजिये "
मैं सब कुछ चुपचाप देख और सुन रहा हूँ, वो हँसती हुई उनसे बातों में मशगूल है और मुझे उससे दोबारा प्यार हो रहा है।
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" सॉरी, मुझे तेज़ चलने कि आदत है न और तुम जानती हो न कि मुझे थोड़ी झिझक होती है "
" अच्छा !! बातें तो बड़ी-बड़ी करते हो और यहाँ मुझसे ही शरमा जाते हो "- उसने हँसते हुए कहा और फिर मेरी बाहों में अपनी बाहें डाल दी
" बातें तो मैं बहुत कर लेता हूँ पर क्या करूँ, रहूंगा तो हमेशा छोटे से शहर वाला लड़का "- मैंने भी हँसते हुए कहा
" अच्छा, चलो न वहाँ जहाँ के समोसे खाने रोज़ जाते हो तुम "
" पागल हो क्या ? वहाँ नहीं ले जा रहा मैं तुम्हें "
" क्यों ?"
" वो जग़ह तुम्हारे लिए नहीं है "
" क्यों लड़कियाँ वहाँ नहीं जा सकती क्या ?"- उसने हँसते हुए कहा
" तुम समझती ही नहीं हो "
पर उसके बच्चे जैसी ज़िद के सामने मैं कभी जीत नहीं पाया था तो आज क्यों अलग होता।
हमने ऑटो पकड़ा और बड़े शहर के उस हिस्से में आ गए जो छोटे से शहर जैसा है। थोड़ा चलने के बाद एक गली में घुसे जो एक चौड़ी सड़क पर खुलती है। सामने एक प्राथमिक सरकारी स्कूल है। लंच टाइम हुआ था उनका और ढ़ेर-सारे छोटे-छोटे बच्चे मैदानों में बिखरे हुए थे। हँसते-खिलखिलाते, खाते-खेलते हुए अपनी दुनिया में मशगूल हैं वो सब। उस स्कूल से सटी हुई वो समोसे कि दुकान है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं समोसे कि खुशबू आने लगी। दुकान के बाहर ही कोयले वाले चूल्हे पर चढ़ी हुई बड़ी सी काले रंग कि कड़ाही रखी हुई है। धीमी आँच पर तेल में तैरते हुए समोसे, मैदे के सफ़ेद रंग से सुनहले में तब्दील हो रहे हैं और उनकी खुशबू मेरे मुँह में पानी ला रही है। उसके लिए ये सब कुछ नया सा है और वो छोटे बच्चे कि तरह ख़ुश हो रही है, जैसे कभी मैं होता था मेरे बचपन के उस छोटी सी जगह के मेले में।
मुझे अंदर से थोड़ी घबराहट सी हो रही है क्योंकि यहाँ हमेशा लड़के या अंकल लोगों की भीड़ रहती है। जैसे ही हम दोनों दुकान के सामने पहुँचे, सारी नज़रें हमारी तरफ़ मुड़ गयीं। खैर ये तो होना ही था। हलकी ठंड़ की उस गुनगुनी धूप में, सफ़ेद कुर्ती और ग़ुलाबी दुप्पटे में अपने खुले रेशमी बालों के साथ उसकी सादग़ी और खूबसूरती ने हर किसी का ध्यान खींच लिया। अख़बार में घुसी आँखें भी बाहर झाँकने लगी थीं, गर्दनें मुड़ी, कुछ का मुँह खुला रह गया और ये सब देख कर मुझे बड़ा अज़ीब सा लगने लगा। हालाँकि लोगों ने तुरंत अपने आप को संभाला और पहले जैसे हो गए। समोसे वाले अंकल ने मुझे मुस्कुराते हुए नमस्कार किया और आज मैं झिझक से जवाब तक न दे पाया। मैं अपने आप को कोसने लगा था कि मैं उसे यहाँ लेकर क्यों आया ?
पर वो तो इन सबसे अंजान अपनी काजल वाली बड़ी-बड़ी आँखों से अभी तक कड़ाही में छनती हुई जलेबी और तलते हुए समोसों को देख रही थी। जलेबी को बनते हुए देखकर कोई इतना ख़ुश भी हो सकता है ये आज जाना मैंने। ख़ैर वो थी ही ऐसी।
" अंकल मैं भी बना कर देखूँ एक बार "
अंकल ने मेरी तरफ़ देखा - "अरे बेटा आप बैठ के खाइए न, ये मुझे ही करने दीजिये "
" हाथ जल जाएगा तुम्हारा "- मैंने फ़िक्रमंद हो कर कहा
" बस एक बार, कितना अमेज़िंग है ये "
" अच्छा अंकल, दे दीजिये इसको पर देखिएगा तेल के छींटे न पड़ें "
" लीजिये बेटा, ऐसे गोल-गोल ये थैली घुमाइए और जलेबी बनती जाएगी "
उसने अपने बालों को कान पर किया और लग गयी ज़लेबी बनाने। उसकी इसी सादगी और मासूमियत पर तो फ़िदा हुआ था मैं।
हमें देखकर अंकल और लड़के लोगों ने एक पूरी टेबल और आस-पास की कुर्सियां ख़ाली कर दीं। शायद वो मेरी झिझक समझ गए थे।
" शायद बड़ी सोच के लिए आपको हमेशा बड़े शहर से होना ज़रूरी नहीं होता "
मैंने दो कुर्सियां उठाई और दुकान के बाहर ही हम दोनों बैठ गए धूप सेंकने। हालाँकि हमसे पहले लोग इंतज़ार कर रहे थे पर सबसे पहले गरमा-गरम समोसे, पुदीने और इमली की चटनी अंकल हमारे लिए लाये।
" आप कभी ख़ूबसूरत लड़की के साथ कहीं जाओ तो अलग ही खातिरदारी करते हैं लोग " - ये सोचते हुए मेरे चेहरे पे एक मुस्कान सी आ गयी
मेरे दिमाग में इतना कुछ चल रहा है और दुनिया से अनजान वो अपनी उँगलियाँ हरी और लाल चटनी में डुबा कर उनका स्वाद ले रही है।
" पहले क्यों नहीं लाये मुझे तुम यहाँ "
" तुम्हें CCD में 200 रुपये वाली कॉफ़ी की आदत है और मुझे यहाँ की दस रुपये की चाय में स्वाद मिलता है। मुझे लगा तुम्हें ये जग़ह कैसे पसंद आएगी ?"
" तुम न ज़्यादा सोचते हो !! अब मुझे किसी ने कभी ये सब दिखाया ही नहीं तो कैसे पता चलेगा मुझे ? "
" अच्छा छोड़ो, ये बताओ कैसा लगा तुम्हें ?"
" समोसे तो बहुत टेस्टी हैं और बहुत मज़ा आया जलेबी बना कर "
मैं सोच रहा था कि उसे दिक्कत होगी इस जग़ह से पर उसके मासूम मन में इन सब बातों के लिए जग़ह ही नहीं थी। बड़े शहर की चमक-दमक और दिखावे की दुनिया से बिलकुल अनजान सी है वो।
तभी दो छोटे बच्चों पर हमारी नज़र पड़ी जो थोड़ी दूर से जलेबी और समोसे की कड़ाही को ललचाई नज़रों से देख रहे थे। इससे पहले मैं कुछ करता -
" इधर आओ "- उसने दोनों बच्चों को इशारे से बुलाया
वो दोनों झिझकते हुए पास आये हमारे।
" आप दोनों समोसे-जलेबी खाओगे ?"
उन्होंने सर नीचे करके ना में सर हिलाया।
" अच्छा कौन सी क्लास में हो आप दोनों ? "
आगे के दांतों में बनी खिड़की वाली अपनी मुस्कराहट में एक ने कहा " 2 क्लास में, दीदी "
"अच्छा " - उसने उनके बालों को सहलाते हुए कहा
" आप दोनों को समोसे पसंद हैं ?"
इस बार दोनों ने हल्का सा मुस्कुराते हुए हाँ में सर हिलाया।
" अंकल, दो प्लेट इन दोनों के लिए भी कर दीजिये "
मैं सब कुछ चुपचाप देख और सुन रहा हूँ, वो हँसती हुई उनसे बातों में मशगूल है और मुझे उससे दोबारा प्यार हो रहा है।
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