छोटे शहर वाला इश्क़ #5

सामने गेट पे लिखा हुआ है " मदर टेरेसा अनाथ सेवा आश्रम "। अंदर कुछ बच्चे पिट्टो खेल रहे हैं। बच्चों कि नज़र हम पर पड़ी और "भैया आ गए " चिल्लाते हुए दौड़ कर हमारी तरफ आये और आकर उसके गले से लग गए। एक उसकी पीठ पर, एक उसकी गोद में और बाकी हाथ पकड़ कर। दीदी-दीदी बोलकर एक-दो ने मेरा भी हाथ पकड़ लिया। मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी क्या हो रहा है। उसने मुझे अपनी जैकेट, मोबाइल और पर्स पकड़ाया और बच्चों के साथ खेलने लगा। मैं धूप में खड़ी हो गयी और देखने लगी।

" आप उनके साथ हो " - पीछे से एक लेडी कि आवाज़ आयी
" ज़ी सिस्टर !! आप जानती हैं उसे ?"
" पिछले 2 साल से "
मैं बिलकुल हैरान थी कि इतने समय में उसने कभी मुझे इसके बारे में कुछ नहीं बताया था।
" लगता है आपको उसने नहीं बताया होगा " - शायद सिस्टर ने मेरे चेहरे पे हैरानी के भाव पढ़ लिए होंगे
मैंने हाँ में सर हिलाया।
" आईये बैठिये मैं बताती हूँ आपको, चाय पियेंगी आप ?" - उन्होंने दो कुर्सीयाँ मंगाई और हम धूप में बैठ गए।

" दो साल पहले ये यहाँ आया था कुछ जानकारी लेने फिर बच्चों से मिला और यहाँ कि ख़राब हालत देखी और बिना कुछ बोले चला गया। फिर कुछ दिनों बाद वापस आया और हमारे लिए 10000 का चेक दे कर गया और सब बच्चों को नए कपड़े दिलवाये। तब से ये हर महीने आता है यहां और बच्चों के लिए चॉकलेट, कपड़े, क़िताब-कॉपी और खेलने का सामान दे जाता है। मैंने कई बार कहा कि इसके बदले कमसकम दीवार पर टंगी डोनर लिस्ट में आपका नाम तो लिखवाने दीजिये ताकि लोगों को पता तो चले आपके बारे में, तो साफ़ मना कर देता है। अब रही बात कि वो यहाँ क्यों आता है तो इसका ज़वाब अगर आप उससे ही पूछेंगी तो बेहतर होगा "



थोड़ी देर में वो खेलने के बाद आकर बैठा मेरे पास। सिस्टर को प्रणाम किया और थोड़ी बात-चीत की फ़िर सिस्टर ने हमें बात करने को अकेले छोड़ दिया।
" जानता हूँ तुम्हारे मन में बहुत सवाल होंगे "
" हाँ, बहुत सारे हैं "

" दो साल पहले कॉलेज से ग्रेजुएट होने के बाद मैं घर पे था नौकरी ज्वाइन करने से पहले। एक दिन अपने पुराने स्कूल के सर्टिफिकेट्स वगैरह देख रहा था जो मेरी मम्मी ने बड़े ध्यान से संभाल कर रखे हैं। उनको देखते हुए बचपन कि यादें ताज़ा कर रहा था की उनके बीच से एक पुराना पीला सा कागज़ गिरा और उस दिन उस कागज़ के टुकड़े ने मेरी दुनिया हिला कर रख दी। वो 23 साल पुराना कागज़ था जिसपे यहाँ का पता और मेरे मम्मी-पापा का नाम लिखा था कि वो एक 3 साल के बच्चे को गोद ले रहे हैं।

मैंने किसी को कुछ नहीं बताया और घूमने के बहाने यहाँ आ गया।

रिकार्ड्स के हिसाब से कुछ महीने की उम्र में मुझे कोई इस अनाथालय के गेट पर छोड़ गया था। तीन साल तक मैं यहाँ पला बढ़ा और फिर एक दिन मेरे माँ-पापा आये और मुझे एक नयी जिंदगी दे गए। न उन्होंने मुझे कभी बताया या इस बात का एहसास होने दिया कि मैं उनका अपना खून नहीं हूँ। उनको भी इस बात का पता नहीं है कि मुझे ये सच अब पता है।

उस दिन तुम रो रही थी न कि मैं तुम्हें नहीं समझता और तुम अकेली हो। अब तुम सोचो कि 24 साल कि उम्र में एक दिन तुम्हें अचानक पता चले जो तुम्हारी पहचान को ही झुटला दे तो कैसा महसूस होगा तुम्हें। मैं एक लावारिस था जिसे मेरे माँ-पापा ने अपना नाम दिया पर मैं कौन हूँ, मुझे जन्म देने वाले माँ-बाप कौन थे, वो मुझे क्यों छोड़ कर गए ? क्या मैं किसी के शोषण और धोखे का नतीज़ा हूँ या फिर किसी के शर्म की वज़ह ?
ज़िंदगी ने एक अज़ीब से मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है मुझे, जहाँ एक तरफ़ मेरा अस्तित्व भी है और एक तरफ़ मैं अस्तित्व-विहीन भी हूँ। दिल में तूफ़ान खड़ा करने वाले ऐसे कई सवालों के बवंडर में फंस गया था मैं।

सोचता हूँ मेरे भाई-बहन भी होंगे और शायद मैं जिंदगी में कभी उनके आस-पास से गुजरूँगा पर फिर भी उन्हें पहचान नहीं पाऊंगा। इन सवालों के ज़वाब के लिए मैं पिछले दो सालों से पागलों की तरह भटक रहा हूँ। कभी-कभी लगता है सर दर्द से फट जायेगा। पूरे कॉलेज में कभी शराब नहीं पी पर ये सब जानने के बाद एक महीने तक शराब में डूबा रहा। कुछ भी समझ में आना बंद हो गया था मुझे।

फिर एक दिन सोचा कि मैं ये क्या कर रहा हूँ ? बजाये ये सोचने के कि मैं कितना ख़ुशक़िस्मत हूँ कि वैसे हालातों से निकल कर आज इतनी अच्छी जग़ह हूँ, मैं शराब में डूबा हूँ। जानती हो मैंने अब इन सवालों के साथ समझौता कर लिया है वरना मैं कभी शांति से ज़ी नहीं पाऊंगा। हाँ ये ज़रूर है कि इन अनसुलझे सवालों की टीस रह-रह कर मेरे ज़ेहन में उठते रहेगी पर मुझे उसके साथ जीने की आदत डालनी ही होगी।

यहाँ को लेकर मेरी यादाश्त तो धुँधली सी है पर जब भी यहाँ आता हूँ तो आज भी लगता है कि यहाँ से कुछ पुराना रिश्ता सा है। ये जो बच्चे हैं न, ये भी मेरी तरह यतीम हैं और अगर मैं इनके लिए कुछ करता हूँ तो वो कोई एहसान नहीं है बल्कि एक लावारिस का दूसरे लावारिस के लिए फ़र्ज़ है। मैं नास्तिक हूँ पर मेरे लिए मेरे माँ-बाप इंसानों से कहीं ऊपर हैं। जो उन्होंने मेरे लिए किया वो मैं इनके लिए करूँगा क्योंकि जिसने तकलीफ़ और दर्द झेला हो उसे ही दूसरों का दर्द दिखाई पड़ेगा और वही उसे समझ कर उन घावों पर मलहम भी लगायेगा। बाकी दुनिया को कोई फ़र्क नहीं पड़ता यही उसूल है इस समाज का।

और तुम जो हमेशा बोलती हो कि क्यों मुझे गुस्सा आता है ग़लत बातों पर, और लोग भी तो हैं दुनिया में उनकी तरह रहना सीखो। शोषण एक इंसान से क्या छीन लेता है वो मैं अच्छे से जानता हूँ और ये तुम कभी नहीं समझोगी। इसलिए मुझे ज़ुल्म करने वाले और उसको सपोर्ट करने वाले हर इंसान से सख़्त नफ़रत है, जिसे मैं चुप रहके नहीं बर्दाश्त कर सकता। "

मेरी आँखों से आँसू बहे जा रहे हैं और गला ऊपर तक भर चुका है पर क्या बोलूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा है, जबकि वो एक दम शांत है, उसकी आँखें दूर कहीं शून्य में खोयी हुई हैं पर कोई आँसू नहीं है। अगर किसी और से ऐसा कुछ सुनती तो शायद मैं इसे मनगढंत कहानी मानती पर अपनी आँखों से देखने के बाद मैंने आज जाना कि सच वाकई में कल्पना से भी अज़ीब होता है।

इंसानों के चेहरे पर भी कितने नक़ाब होते हैं। इतने लम्बे समय से इसके साथ रही पर एक पल को भी अंदाज़ा नहीं हुआ कि इस हँसते-खेलते चेहरे के पीछे कोई इतना दर्द छुपा कर रह सकता है। इस एहसास ने मुझे कई तरीकों से झिंझोड़ कर रख दिया और समाज के बारे में जो मेरी समझ थी उसे चकनाचूर करके ये एहसास दिलाया कि वाक़ई में मेरे जैसे लोग कितने प्रिविलेज्ड हैं, किसी भी तरह के शोषण से बचे हुए कितनी आसानी से हम दूसरों की बड़ी तकलीफ़ों को नज़रअंदाज़ कर अपनी मामूली से परेशानियों के सामने हार मान बैठते हैं।

आज उसने मुझे एक नए तौर से जीना सीखा दिया और शायद अब मेरे दिल में उसके लिए प्यार से कहीं ज़्यादा इज़्जत है।

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