छोटे शहर वाला इश्क़ #2
मैं क़रीब 6 फ़ीट का हूँ और वो मेरे सीने तक आती है। मुझे तो उसका हाथ पकड़ने में भी झिझक होती है पर उसे नहीं। वो तो मेरा हाथ अपने कंधे पर रखती है और फिर मेरी कमर में हाथ डालकर, मेरे सीने पर अपना सर टिकाकर चलती है। उसे कोई परवाह ही नहीं ज़माने की, दुनिया देखती है तो देखने दो। वो बोलती है कि वैसे चलने में उसे बड़ा महफूज़ सा महसूस होता है। मैं भले ऊपर से उसे बोलूँ कि यहाँ नहीं, लोग घूर रहे हैं हमें पर अंदर से मुझे बहुत सुकून सा मिलता है। ऐसा लगता है जैसे मेरे सीने से लगकर वो दिल के अँधेरी गलियारों में क़ैद बहुत सारे उफ़नते हुए जज़्बातों को शांत कर देती है।
गले लगना या सीने से लगना कितना ख़ुशनुमा एहसास होता है। भले ही आप कितने परेशान क्यों न हो एक बार कोई प्यार से गले लगा ले तो कम से कम थोड़ी देर के लिए तो आप सब ग़म भूलकर ख़ुश हो जाते हो। कभी-कभी सोचता हूँ कि हम लड़कों को ये एहसास करने का मौका ही नहीं दिया जाता। लड़का-लड़की का आपस में गले मिलने में कुछ गलत है ही नहीं। पर बचपन से कुछ ऐसा सिखाया जाता है की 8-9 साल की उम्र आते तक हम एक दायरा रखना शुरू कर देते हैं यहाँ तक कि माँ से भी। स्कूल में भी लड़कियों से एक दूरी बना कर रखते हैं। लड़कियों से बात कोई लड़का कर ले तो वो बड़ी ख़बर बन जाती थी और किसी ने अगर बधाई देने के लिए हाथ मिला दिया तो फिर तो पूछो मत। ऐसे माहौल में बड़े होने के बाद जब कोई लड़की आपके क़रीब आने की कोशिश करती है, आपका हाथ पकड़ती है या प्यार से आपके सीने से लग जाए तो मानो बदन में करंट सा दौड़ जाता है। दिल कि धड़कनें बढ़ जाती हैं और जिसको शब्दों में न बोल पाओ वैसी बड़ी अच्छी से फ़ीलिंग आती है।
"तुम्हारे लिए भी एक प्लेट बोल दूँ ?"
अचानक उसकी आवाज़ ने मेरा ध्यान तोड़ा और मैंने अपने मन की आवाज़ से बात करना बंद किया ।
उसे स्ट्रीट-फ़ूड बहुत पसंद है खासकर के गोलगप्पे इसलिए हम "वेलकम चाट और गोलगप्पे" वाले ठेले के सामने खड़े हैं। थोड़ा ढूंढने के बाद मुझे ये स्टॉल मिला जहाँ एक भाई हाथ में प्लास्टिक के दस्ताने पहनकर गोलगप्पे दे रहे हैं। उसकी उम्र कोई 20 साल रही होगी। उसे देखकर मैं सोचने लगा की ये बस संयोग है की आज मैं इधर खड़ा हूँ और वो ठेले के पीछे वरना मैं भी उसी जगह खड़ा हो सकता था। कभी-कभी मुझे बड़ा आश्चर्य होता है जब मेरी उम्र के लोग अपनी सफ़लता के पीछे इस बहुत बड़े संयोग को नहीं देखते और खुद को "सेल्फ़-मेड" बताते हैं। जबकि उनके यहाँ पहुंचने के पीछे सबसे बड़ा हाथ होता है एक ऐसे घर में पैदा होना जहाँ आपको शिक्षा, स्वास्थ्य, अच्छा खान-पान और सर पे एक छत मिले। यही खुशकिस्मती का माहौल और अवसर लोगों में टैलेंट पैदा करती है न कि कोई टैलेंटेड पैदा होकर आता है यहाँ।
" कहाँ खोये हुए हो ?" - उसकी आवाज़ मुझे फिर से मेरे मन की दुनिया से बाहर ले कर आयी। मैं भी न अज़ीब इंसान हूँ, इसके साथ इतना कम वक्त बिताने को मिलता है और उसमें भी खुद की फिलोसॉफी में खो जाता हूँ।
" कुछ नहीं, ऐसे ही कुछ चल रहा था दिमाग में "
" एक काम करोगे "
" हाँ, बोलो "
" जब मेरे साथ रहो न तो अपने दिमाग़ को तो घर पे छोड़ के आया करो - उसने हँसते हुए मुझे ताना दिया
अच्छा, गोलगप्पे टेस्ट करो न !! "
" नहीं तुम ही खाओ, पर ज्यादा नहीं क्योंकि कॉलेरा, टाइफाइड बहुत फ़ैल रहा है आजकल "
" ओफ़-ओह !! कभी तो हर चीज़ में साइंस मत घुसाया करो "
" अच्छा भाई, खाओ तुम जी भर के बस बाद में मुझे मत बोलना अगर बीमार पड़ी तो "
" हुंह !! अब ऐसा डराओगे तो क्या ही खाया जायेगा मुझसे "
ऐसा नहीं है की मैं हमेशा बहुत गंभीर रहता हूँ या ऐसा शुरू से रहा हूँ बल्कि मैं तो अव्वल दर्जे का शरारती इंसान हूँ जिसकी गवाही सिर्फ मेरे दोस्त-यार-भाई दे सकते हैं। पर इसके साथ रहता हूँ तो मेरे जैसा बेपरवाह इंसान भी अपने आप फ़िक्र करने वाला बन जाता है। कमाल की चीज़ होती है ये प्यार।
मेरा मानना है कि हर इंसान को ज़माने की परवाह किये बिना एक बार इश्क़ तो करना ही चाहिए क्योंकि इश्क़ भले अपने अंजाम तक ना पहुँचे पर इंसान को बदलता ज़रूर है चाहे वो अच्छे के लिए हो या बुरे के लिए। इश्क़ कभी आपको पहाड़ों की चोटी पर ले जाकर खड़ा कर देगा तो कभी समुन्दर की गहराइयों का भी एहसास करा देगा। कभी पेट में तितलियाँ उड़ेंगी तो कभी ख़ुशी से पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ेंगे और कभी आपकी भूख-प्यास और नींद-चैन तक गायब हो जायेगा।
ये इश्क़ ही तो है जो सदियों से समाज की बेड़ियों को तोड़ता आ रहा है क्योंकि इश्क़ पैसा, जाति या मज़हब देखकर नहीं होता है और अगर किसी को ये सब देखने के बाद प्यार होता है तो वो प्यार नहीं फ़रेब है।
यहाँ पढ़ें - छोटे शहर वाला इश्क़ #3
गले लगना या सीने से लगना कितना ख़ुशनुमा एहसास होता है। भले ही आप कितने परेशान क्यों न हो एक बार कोई प्यार से गले लगा ले तो कम से कम थोड़ी देर के लिए तो आप सब ग़म भूलकर ख़ुश हो जाते हो। कभी-कभी सोचता हूँ कि हम लड़कों को ये एहसास करने का मौका ही नहीं दिया जाता। लड़का-लड़की का आपस में गले मिलने में कुछ गलत है ही नहीं। पर बचपन से कुछ ऐसा सिखाया जाता है की 8-9 साल की उम्र आते तक हम एक दायरा रखना शुरू कर देते हैं यहाँ तक कि माँ से भी। स्कूल में भी लड़कियों से एक दूरी बना कर रखते हैं। लड़कियों से बात कोई लड़का कर ले तो वो बड़ी ख़बर बन जाती थी और किसी ने अगर बधाई देने के लिए हाथ मिला दिया तो फिर तो पूछो मत। ऐसे माहौल में बड़े होने के बाद जब कोई लड़की आपके क़रीब आने की कोशिश करती है, आपका हाथ पकड़ती है या प्यार से आपके सीने से लग जाए तो मानो बदन में करंट सा दौड़ जाता है। दिल कि धड़कनें बढ़ जाती हैं और जिसको शब्दों में न बोल पाओ वैसी बड़ी अच्छी से फ़ीलिंग आती है।
"तुम्हारे लिए भी एक प्लेट बोल दूँ ?"
अचानक उसकी आवाज़ ने मेरा ध्यान तोड़ा और मैंने अपने मन की आवाज़ से बात करना बंद किया ।
उसे स्ट्रीट-फ़ूड बहुत पसंद है खासकर के गोलगप्पे इसलिए हम "वेलकम चाट और गोलगप्पे" वाले ठेले के सामने खड़े हैं। थोड़ा ढूंढने के बाद मुझे ये स्टॉल मिला जहाँ एक भाई हाथ में प्लास्टिक के दस्ताने पहनकर गोलगप्पे दे रहे हैं। उसकी उम्र कोई 20 साल रही होगी। उसे देखकर मैं सोचने लगा की ये बस संयोग है की आज मैं इधर खड़ा हूँ और वो ठेले के पीछे वरना मैं भी उसी जगह खड़ा हो सकता था। कभी-कभी मुझे बड़ा आश्चर्य होता है जब मेरी उम्र के लोग अपनी सफ़लता के पीछे इस बहुत बड़े संयोग को नहीं देखते और खुद को "सेल्फ़-मेड" बताते हैं। जबकि उनके यहाँ पहुंचने के पीछे सबसे बड़ा हाथ होता है एक ऐसे घर में पैदा होना जहाँ आपको शिक्षा, स्वास्थ्य, अच्छा खान-पान और सर पे एक छत मिले। यही खुशकिस्मती का माहौल और अवसर लोगों में टैलेंट पैदा करती है न कि कोई टैलेंटेड पैदा होकर आता है यहाँ।
" कहाँ खोये हुए हो ?" - उसकी आवाज़ मुझे फिर से मेरे मन की दुनिया से बाहर ले कर आयी। मैं भी न अज़ीब इंसान हूँ, इसके साथ इतना कम वक्त बिताने को मिलता है और उसमें भी खुद की फिलोसॉफी में खो जाता हूँ।
" कुछ नहीं, ऐसे ही कुछ चल रहा था दिमाग में "
" एक काम करोगे "
" हाँ, बोलो "
" जब मेरे साथ रहो न तो अपने दिमाग़ को तो घर पे छोड़ के आया करो - उसने हँसते हुए मुझे ताना दिया
अच्छा, गोलगप्पे टेस्ट करो न !! "
" नहीं तुम ही खाओ, पर ज्यादा नहीं क्योंकि कॉलेरा, टाइफाइड बहुत फ़ैल रहा है आजकल "
" ओफ़-ओह !! कभी तो हर चीज़ में साइंस मत घुसाया करो "
" अच्छा भाई, खाओ तुम जी भर के बस बाद में मुझे मत बोलना अगर बीमार पड़ी तो "
" हुंह !! अब ऐसा डराओगे तो क्या ही खाया जायेगा मुझसे "
ऐसा नहीं है की मैं हमेशा बहुत गंभीर रहता हूँ या ऐसा शुरू से रहा हूँ बल्कि मैं तो अव्वल दर्जे का शरारती इंसान हूँ जिसकी गवाही सिर्फ मेरे दोस्त-यार-भाई दे सकते हैं। पर इसके साथ रहता हूँ तो मेरे जैसा बेपरवाह इंसान भी अपने आप फ़िक्र करने वाला बन जाता है। कमाल की चीज़ होती है ये प्यार।
मेरा मानना है कि हर इंसान को ज़माने की परवाह किये बिना एक बार इश्क़ तो करना ही चाहिए क्योंकि इश्क़ भले अपने अंजाम तक ना पहुँचे पर इंसान को बदलता ज़रूर है चाहे वो अच्छे के लिए हो या बुरे के लिए। इश्क़ कभी आपको पहाड़ों की चोटी पर ले जाकर खड़ा कर देगा तो कभी समुन्दर की गहराइयों का भी एहसास करा देगा। कभी पेट में तितलियाँ उड़ेंगी तो कभी ख़ुशी से पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ेंगे और कभी आपकी भूख-प्यास और नींद-चैन तक गायब हो जायेगा।
ये इश्क़ ही तो है जो सदियों से समाज की बेड़ियों को तोड़ता आ रहा है क्योंकि इश्क़ पैसा, जाति या मज़हब देखकर नहीं होता है और अगर किसी को ये सब देखने के बाद प्यार होता है तो वो प्यार नहीं फ़रेब है।
यहाँ पढ़ें - छोटे शहर वाला इश्क़ #3

Comments
Post a Comment